कुण्डलीनी शक्ति Kundalini Shakti

                    KUNDALINI YOGA

                   -: कुण्डलीनी योग :-

प्राण शक्ति के बारे में जानने के बाद अब नाड़ी शक्ति का वर्णन करते हैं।
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नाड़ी शक्ति इड़ा पिंगला सुषुम्णा 

३. नाड़ी शक्ति :- हमारे शरीर में प्राण शक्ति के प्रवाह के लिए असंख्य नाड़ीयाँ उपस्थित होती हैं इनमें से 15 नाड़ियाँ मुख्य होती हैं।

(१) सुषुम्णा (सरस्वती)

(२) इड़ा ( गंगा)

(३) पिंगला (यमुना)

(४) गांधारी

(५) हस्तजिह्वा

(६) पूषा

(७) यशस्विनी

(८) शूरा

(९) कुहू

(१०) सरस्वती (विद्या)

(११) वारुणी

(१२) अलम्बुषा

(१३) विश्वोदरी

(१४) शंखिनी

(१५) चित्रा

इड़ा व पिंगला दौनो नाड़ीयाँ आज्ञा चक्र के क्रमशः बाऐं व दाऐं से निकलकर सर्पिलाकार गति करती हुई नीचे की ओर जाती है।

और गुदा के समीप पुनः मिल जाती हैं।


इन दोनों नाड़ियों को क्रमशः गंगा व यमुना नाम से भी जाना जो कि भारत की प्रमुख पवित्र नदीयाँ हैं।

 इड़ा नाड़ी को चंद्र नाड़ी भी कहते हैं, पिंगला नाड़ी को सूर्य नाड़ी कहते हैं।


और सुषुम्ना नाड़ी को अग्नि तत्व के समान सौम्य व तेजोमय माना गया है।

सुषुम्ना नाड़ी सबसे महत्वपूर्ण होती है ।

सुषुम्णा नाड़ी इडा व पिंगला नाड़ी के मध्य से सीधी गुजरती हैं और जिस जिस स्थान पर इडा पिंगला और सुषुम्णा मिलती है वहां शक्ति चक्रो का निर्माण होता है ।

इन चक्रों की संख्या 7 होती हैं।

सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती नदी के समान माना है और यह नाड़ी योग के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है।

यह नाड़ी सत्वगुण प्रधान नाड़ी हैं।

योगी जन इसी नाड़ी के द्वारा अपने योग के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।

यह तीनों नाड़ीयाँ ब्रह्माण्ड कि महत्वपूर्ण त्रिशक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं।

धनात्मक ऊर्जा ,ऋणात्मक ऊर्जा ,उदासीन उर्जा जो दौनो से समान अनुपात में मिलने से निर्मित होती हैं।

इन तीनों शक्तियों को हम ब्रह्मा, विष्णु, तथा महाकाल महादेव के रुप में मानते हैं।

तीन प्रकार के गुण होते हैं, जो कि यह है- सत्व गुण, रज गुण और तम गुण 
यह तीनो गुण तीनों नाड़ीयों (सुषुम्णा, इड़ा व पिंगला) में विद्यमान रहते हैं।

अन्य 12 नाड़ीयाँ शरीर के अलग-अलग कार्यों,प्रक्रियाओं, अंगो को नियंत्रित करती है।

जैसे - गांधारी बाईं आँख से तथा हस्तजिह्वा दाईं आँख से निकलकर बाऐं पैर के अँगूठे व दाऐं पैर के अँगूठे तक जाती है।

पूषा दाहिने कान तथा यशस्विनी बाऐं कान के श्रवण करने के सामर्थ्य के साधन रूप में होती है।

शूरा नाड़ी गन्ध- ग्रहणार्थ अर्थात गन्ध के ग्रहण करने व जानने के लिए नासिका से भ्रूमध्य (आज्ञा चक्र) तक जाती है।

कुहू मल त्याग करने में, सरस्वती नाड़ी जिह्वा के अग्र भाग में जाकर शब्द ज्ञान और वाक्यों को प्रकट करने के सामर्थ्य को उत्पन्न करती है।


वारुणी नाड़ी मुत्र विसर्जन करती है ।


अलम्बुषा नाड़ी दोनो कानों तक जाती है।


 सम्मीलित रुप से ,विश्वोदरी नाड़ी से चार प्रकार के अन्न खाद्य, पेय, चोस्य,लेह्य ग्रहण करने का सामर्थ्य व पचाने का सामर्थ्य नियंत्रित होता है।



चित्रा नाड़ी या सिवनी नामक नाड़ी शिश्न से शुक्राणु को निकालने के लिए उत्तरदायी होती है।

इन सभी पंद्रह नाड़ीयों में प्रथम तीन नाड़ीयाँ मुख्य है और उन तीन नाड़ीयों(सुषुम्णा, इड़ा, पिंगला ) मेंं भी सुषुम्णा प्रमुख नाड़ी है ।

इन तीनों नाड़ीयों का योग से घनिष्ट सम्बन्ध है ।

सुषुम्णा नाड़ी अति सुक्ष्म नली के समान है, जो गुदा के निकट से निकलकर मेरूदण्ड के भीतर से होती हुई मस्तिष्क के ऊपर सहस्त्रार या शुन्य चक्र जिसे ब्रह्म रंध्र के नाम से भी जानते हैंं,वहां तक जाती हैं।

गुदा के बाऐं भाग से इड़ा नाड़ी निकलती है तथा दाऐं भाग से पिंगला निकलती है ।

दोनो इड़ा व पिंगला गुदा भाग से निकलकर नासिका के मुल स्थान जहां आज्ञा चक्र में मिल जाती है।


आज्ञा चक्र में सुषुम्णा इड़ा व पिंगला तीनों मिलकर युक्त त्रिवेणी संगम का निर्माण करती है।

 और जहां से तीनों नाड़ियाँ निकलती है अर्थात् मुक्त होती है (मुलाधार चक्र के तनिक नीचे से ) उसे मुक्त त्रिवेणी कहते हैं।

साधारण रूप से प्राण शक्ति निरंतर इडा पिंगला नाड़ियों से ही श्वास-प्रश्वास के रूप से प्रवाहित होती रहती हैं ।

हमारा श्वास कभी बाएं नथुने से और कभी दाएं नथुने से चलता है।

 और कभी-कभी दोनों नथुनों से समान रूप से श्वास प्रश्वास की गति होती रहती हैं।


जब बाएं नथुने से श्वास अधिक वेग से चलता रहे तो उसे इडा नाडी के सक्रिय होने का प्रमाण समझना चाहिए।

और जब दाएं नथुने से अधिक वेग से श्वास प्रश्वास चलती रहे तो उसे पिंगला नाड़ी के सक्रिय होने का प्रमाण समझना चाहिए।

और जब दोनों नथुनों से समान गति से एक क्षण एक नथुने से और दूसरे क्षण दूसरे नथुने से प्रवाहित हो तो उसे सुषुम्ना नाड़ी के सक्रिय होने का प्रमाण समझना चाहिए।

स्वस्थ मनुष्य का नाड़ी चक्र प्रतिदिन प्रातः काल सूर्योदय के समय से ढाई -ढाई घंटे के हिसाब से क्रमशः एक -एक नथुने से बारी बारी से चलता रहता है ।

इसी प्रकार अहोरात्र अर्थात 1 दिन और रात से 12 बार अर्थात बारह वक्त बाएं और 12 बार ही अदाएं नथुने से क्रमानुसार श्वास चलता हैं।

प्राचीन समय में अनेक आयुर्वेदाचार्य को नाड़ी विज्ञान का पूर्ण ज्ञान होता था।

 इसलिए उस समय किसी भी रोग या व्याधि के बारे में केवल हाथ पकड़कर नाड़ी को जांच करें या स्वर को देख कर बता देते थे और उसी के अनुरूप औषधियों का निर्माण करते थे ।


इसलिए प्राचीन समय से ही भारत आयुर्वेद के रूप में प्रसिद्ध रहा है वर्तमान समय में नाड़ी का ज्ञान किसी को भी स्पष्ट रूप से नहीं है ।


और इसी के कारण भारत के निवासियों को रसायनों से बनी हुई रासायनिक औषधियों या यूं कहें नशीले पदार्थों के द्वारा शरीर के रोगों को दबाकर तथा शरीर के संवेदनशील गुण को अवरुद्ध करके हमारे शरीर का नाश कर रहे हैं।


अतः हमें अधिक से अधिक योग और आयुर्वेद का उपयोग करना चाहिए और उसी के अनुरूप अपने जीवन को संतुलित करके जीना चाहिए।

नाड़ी शक्ति का ज्ञान होना केवल स्वास्थ्य के ठीक रखने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका ज्ञान होने पर अनेक दिव्य शक्तियों को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

और जो भी हम अब तक सुनते आए हैं जैसे की अष्ट सिद्धियां, नव निधियां, कुंडलिनी शक्ति, दिव्य दृष्टि तथा टेलीपैथी, हिप्नोटिज्म, मेस्मेरिज्म इत्यादि अनेक प्रकार की अविश्वसनीय और आश्चर्यजनक शक्तियों को प्राप्त कर सकते हैं।

इसलिए कुंडलिनी जागरण करने में नाड़ी शक्ति का ज्ञान होना महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

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