।। योगः कृर्मशु कौशलम् ।।
।। अहिंसा ।।
Nonviolent |
अहिंसा :- शरीर, वाणी, तथा मन की इच्छा से किसी प्राणी तथा सजीव या निर्जीव किसी भी प्राकृतिक पहलू को हनी नहीं पहुंचानाअहिंसा होती है।
काम-वासना, क्रोध , लोभ , मोह या भय आदि की मनोवृत्तियों (मन में उठनें वाले अनियंत्रित विषय - भावनाऐंं ) के कारण स्वयंम् अनियंत्रित होकर अपने आप को तथा अन्य प्राणीयों ( पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, वनस्पति, व मनुष्य ) को शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक रुप से पीड़ा अथवा हानि पहुँचाना या किसी ओर से हानि पहुँचवाना या हानि पहुँचाने कि आज्ञा देना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हानि पहुँचाने का कारण बनना हिंसा जनीत कृत्य है।
हिंसा का स्वरुप सुक्ष्म तथा व्यापक होता है।
और हिंसा कभी भी सटीक समाधान नहीं होता हैं। हिंसा से केवल हानि हि होती है, हिंसा का सुक्ष्म रुप घर परीवार में टकराव बिखराव तथा द्वेष का कारण बनता है।
इससे समाजिक, व्यवहारीक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता हैं।
एक हि मनुष्य समाज अनैक टूकड़ों में विभाजित हो गया है और इस प्रकार सृष्टि में सर्वश्रेष्ट कृति माने जाने वाले मानव, केवल शरीर से ही मनुष्य रह गए है ।
मन, आत्मा, व्यवहार तथा कर्म से तो हिंसात्मक प्राणी मात्र हि है।
यही कारण है कि वर्तमान समय में चारों दिशाओं में विनास लीला हो रहि है।
।। हिंसा जो करता है और जिस पर हिंसा होती है दोनो का विनाश हि होता है ।।
हिंसा के उदाहरण :- गाय , भैंस, अश्व,या अन्य कोई जीव उसेे उचित आहार ,आराम नहिंं देना और उनको सताना मारना तथा क्रोध में उनको मृृृत्यू देेना और उनसे दूग्ध आदि सामग्री क्रुरता पूर्वक प्राप्त करना घोर हिंसा है।
शिक्षार्थी को शिक्षा प्रदान करने के लिए कुछ डाटना, कुछ छड़ी से मारना हिंसा नहिं है।
परन्तु अगर शिक्षक अपने शिक्षक धर्म से हटकर शिष्य को अपने अभीमान ,अपना डर दिखाने के पर्याय वह मारता है ।
तथा अपनी किसी अक्षम्य गलती को छुपाने के उद्देश्य से शिक्षार्थी को मारना-पीटना कष्ट देना घौर हिंसा है।
ऐसे शिक्षकों को सजा देना आवश्यक है और इस प्रकार के शिक्षकों को शिक्षक पद से हटा दिया जाना चाहिए।
शिक्षक को चाहिए कि वह अपने शिष्य कि वजह से ही शिक्षक है अगर शिष्य नहिं हों तो शिक्षक का कोई मूल्य नहीं होता है।
किसी रोगी व्यक्ति के शरीर से लालच वश चिकित्सक द्वारा उसके आंतरिक अंगों को निकालना और उन्है बैचना अत्यन्त घोर निंदा जनक हिंसा है।
लेकिन रोगी को स्वस्थ करने के लिए उसके शरीर को चीरना काटना तथा अन्य प्रकार से कड़वी दवाई खिलाना आदि हिंसा नहिं है।
प्रेम से उनके कल्यानार्थ सुधारात्मक दण्ड देना हिंसा नहीं है अहिंसा हैं।
किसी प्राणी (पेड़-पौधे, जीव -जन्तु, मनुष्य) के शरीर से उनके प्राणों का अलग करना सबसे बड़ी भयंकर हिंसा है।
हिंसा करने वाला व्यक्ति अपने जीवन को बहुत हि संकुचित रूप से देखता है, उसके अनुसार उसका जीवन ,उसका सुख, उसका लाभ हि सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, अन्य का नहिंं ।
ऐसे मनुष्य जीवन भर असांत और भयभीत रहते हैं।
लेकिन जो लोग अपने जीवन को इस प्रकार से देखते हैं कि जिस कर्म से दूसरे प्राणीयों को शारीरिक ,मानसिक कष्ट होता हैं वह कर्म स्वयंम् को कभी सुख प्रदान नहिं कर सकता है।
वह अपने आप को सभी में देखता है।
वह इस ब्रह्माण्ड के सभी घटको को अपने कर्म के चुनाव में महत्वपूर्ण स्थान देता है, क्योंकि वह जानता है कि वह भी इस ब्रह्माण्ड का हि अंश है ।
यह सिद्धान्त हि सभी हिंसात्मक कृत्यों को समाप्त कर सकता है।
हिंसा से सम्बन्धित शंकायें या मिथक:◆●◆●
1.:- अहिंसा के स्वरूप को समझने के लिए हमें यह विवेकता पूर्वक समझना चाहिए कि सत्त्वरूपी कर्म, सत्त्व ज्ञान, न लोभ न ही स्वार्थ, वैराग्य पूर्ण ( किसी के मोह के कारण कुकर्म न करना) कर्म के द्वारा अर्जित ऐश्वर्य (श्रेष्ट भावनाओं से) आदि के प्रकाश में अहिंसा हैं ।
2.:- " स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोअ्न्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।। (गीता २|३१)
अर्थात्---
स्वधर्म को समझकर भी तुझे हिचकिचाना उचित नहिं है; क्यौंंकि धर्मयुद्ध की अपेक्षा क्षत्रिय के लिए और कुछ अधिक श्रेयस्कर नहीं हो सकता ।
अपनी दुर्बलताओं के कारण भयभीत होकर अत्याचार सहन करना,अपनी धन सम्पत्ति को चोर-डाकुओं से यह सोच कर नहिं बचाना कि हम अहिंसा वादि है या दुर्बलता प्रकट करना अहिंसा नहीं है जबकी हिंसा को बढ़ावा देना हैं ,हिंसा का समर्थन करना कहलाता है ।
दुर्बलता के कारण अपने समक्ष अपने घर परीवार, समाज ,राष्ट्र, तथा धर्म को दूर्जनों द्वारा अपमानित होते देखना अहिंसा नहीं है, बल्कि हिंसा का पोषक कायरता रूपी महापाप है ।
यह जान लेना आवश्यक है, कि क्षत्रिय धर्मानुसार तेजस्वि वीर ,विवेक पूर्ण साहसी मनुष्य ही अहिंसा-व्रत का यथार्थ रूप से पालन कर सकता है । दुर्बल, डरपोक, कायर , नपूंसक, अविवेकि, व्यक्ति हिंसकों की हिंसा को बढ़ाने में सहयोगी होते हैं। ।
उदाहरणार्थ :- डाकू (संगठन और मृत्यु से निर्भयता )------ इन दोनों शक्तियों को लेकर निकलते हैं ।
जो लोग मृत्यू के भय से अपना धन सम्पत्ति बिना मुकाबला किये हुए आसानी से दे देते हैं या ले जाने देते हैं।
वह लोग डाकूऔं को दूसरे स्थानों में डाका डालने व हिंसा करने व लूटने के उत्साह और हिम्मत को बढ़ाकर उनके इस प्रकार की हिंसा में समर्थन करके अप्रत्यक्ष रूप से स्वयंम् भी हिंसा ही करते हैं ।
लेकिन जो वीर पूरूष डाकूओं से अधिक साहसी , सामर्थ्यवान ,मृत्यू से अभय, आत्मबल से परीपूर्ण और सुसंगठन रूपी दिव्य शक्ति रखते हैं।
और संगठित होकर निर्भयता के उन डाकूऔं का मुकाबला करते हैं।
वे प्राणी अपने प्राणोंं को खोकर भी उन अत्याचारीयों के दूसरे स्थानोंं में आतंक फैलाने की आकांक्षा को खत्म कर देते हैं।
वह उनकि हिंसा को समूल नष्ट करके अहिंसा परमों धर्मः के भागी बनते हैं ।
यदि वह इस संग्राम में विजयी होते हैं तो अपने जीवन ,धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य को सम्मान पूर्वक भोगते हैं।
बलिदान होते है तो समाज व देश राष्ट्र के लिए एक अमर उदाहरण प्रस्तुत करते है।
To be continued.......
Pleas comment for your ............query's...........
काम-वासना, क्रोध , लोभ , मोह या भय आदि की मनोवृत्तियों (मन में उठनें वाले अनियंत्रित विषय - भावनाऐंं ) के कारण स्वयंम् अनियंत्रित होकर अपने आप को तथा अन्य प्राणीयों ( पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, वनस्पति, व मनुष्य ) को शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक रुप से पीड़ा अथवा हानि पहुँचाना या किसी ओर से हानि पहुँचवाना या हानि पहुँचाने कि आज्ञा देना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हानि पहुँचाने का कारण बनना हिंसा जनीत कृत्य है।
हिंसा का स्वरुप सुक्ष्म तथा व्यापक होता है।
और हिंसा कभी भी सटीक समाधान नहीं होता हैं। हिंसा से केवल हानि हि होती है, हिंसा का सुक्ष्म रुप घर परीवार में टकराव बिखराव तथा द्वेष का कारण बनता है।
इससे समाजिक, व्यवहारीक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता हैं।
एक हि मनुष्य समाज अनैक टूकड़ों में विभाजित हो गया है और इस प्रकार सृष्टि में सर्वश्रेष्ट कृति माने जाने वाले मानव, केवल शरीर से ही मनुष्य रह गए है ।
मन, आत्मा, व्यवहार तथा कर्म से तो हिंसात्मक प्राणी मात्र हि है।
यही कारण है कि वर्तमान समय में चारों दिशाओं में विनास लीला हो रहि है।
।। हिंसा जो करता है और जिस पर हिंसा होती है दोनो का विनाश हि होता है ।।
हिंसा के उदाहरण :- गाय , भैंस, अश्व,या अन्य कोई जीव उसेे उचित आहार ,आराम नहिंं देना और उनको सताना मारना तथा क्रोध में उनको मृृृत्यू देेना और उनसे दूग्ध आदि सामग्री क्रुरता पूर्वक प्राप्त करना घोर हिंसा है।
शिक्षार्थी को शिक्षा प्रदान करने के लिए कुछ डाटना, कुछ छड़ी से मारना हिंसा नहिं है।
परन्तु अगर शिक्षक अपने शिक्षक धर्म से हटकर शिष्य को अपने अभीमान ,अपना डर दिखाने के पर्याय वह मारता है ।
तथा अपनी किसी अक्षम्य गलती को छुपाने के उद्देश्य से शिक्षार्थी को मारना-पीटना कष्ट देना घौर हिंसा है।
ऐसे शिक्षकों को सजा देना आवश्यक है और इस प्रकार के शिक्षकों को शिक्षक पद से हटा दिया जाना चाहिए।
शिक्षक को चाहिए कि वह अपने शिष्य कि वजह से ही शिक्षक है अगर शिष्य नहिं हों तो शिक्षक का कोई मूल्य नहीं होता है।
किसी रोगी व्यक्ति के शरीर से लालच वश चिकित्सक द्वारा उसके आंतरिक अंगों को निकालना और उन्है बैचना अत्यन्त घोर निंदा जनक हिंसा है।
लेकिन रोगी को स्वस्थ करने के लिए उसके शरीर को चीरना काटना तथा अन्य प्रकार से कड़वी दवाई खिलाना आदि हिंसा नहिं है।
प्रेम से उनके कल्यानार्थ सुधारात्मक दण्ड देना हिंसा नहीं है अहिंसा हैं।
किसी प्राणी (पेड़-पौधे, जीव -जन्तु, मनुष्य) के शरीर से उनके प्राणों का अलग करना सबसे बड़ी भयंकर हिंसा है।
हिंसा करने वाला व्यक्ति अपने जीवन को बहुत हि संकुचित रूप से देखता है, उसके अनुसार उसका जीवन ,उसका सुख, उसका लाभ हि सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, अन्य का नहिंं ।
ऐसे मनुष्य जीवन भर असांत और भयभीत रहते हैं।
लेकिन जो लोग अपने जीवन को इस प्रकार से देखते हैं कि जिस कर्म से दूसरे प्राणीयों को शारीरिक ,मानसिक कष्ट होता हैं वह कर्म स्वयंम् को कभी सुख प्रदान नहिं कर सकता है।
वह अपने आप को सभी में देखता है।
वह इस ब्रह्माण्ड के सभी घटको को अपने कर्म के चुनाव में महत्वपूर्ण स्थान देता है, क्योंकि वह जानता है कि वह भी इस ब्रह्माण्ड का हि अंश है ।
यह सिद्धान्त हि सभी हिंसात्मक कृत्यों को समाप्त कर सकता है।
हिंसा से सम्बन्धित शंकायें या मिथक:◆●◆●
1.:- अहिंसा के स्वरूप को समझने के लिए हमें यह विवेकता पूर्वक समझना चाहिए कि सत्त्वरूपी कर्म, सत्त्व ज्ञान, न लोभ न ही स्वार्थ, वैराग्य पूर्ण ( किसी के मोह के कारण कुकर्म न करना) कर्म के द्वारा अर्जित ऐश्वर्य (श्रेष्ट भावनाओं से) आदि के प्रकाश में अहिंसा हैं ।
2.:- " स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोअ्न्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।। (गीता २|३१)
अर्थात्---
स्वधर्म को समझकर भी तुझे हिचकिचाना उचित नहिं है; क्यौंंकि धर्मयुद्ध की अपेक्षा क्षत्रिय के लिए और कुछ अधिक श्रेयस्कर नहीं हो सकता ।
अपनी दुर्बलताओं के कारण भयभीत होकर अत्याचार सहन करना,अपनी धन सम्पत्ति को चोर-डाकुओं से यह सोच कर नहिं बचाना कि हम अहिंसा वादि है या दुर्बलता प्रकट करना अहिंसा नहीं है जबकी हिंसा को बढ़ावा देना हैं ,हिंसा का समर्थन करना कहलाता है ।
दुर्बलता के कारण अपने समक्ष अपने घर परीवार, समाज ,राष्ट्र, तथा धर्म को दूर्जनों द्वारा अपमानित होते देखना अहिंसा नहीं है, बल्कि हिंसा का पोषक कायरता रूपी महापाप है ।
यह जान लेना आवश्यक है, कि क्षत्रिय धर्मानुसार तेजस्वि वीर ,विवेक पूर्ण साहसी मनुष्य ही अहिंसा-व्रत का यथार्थ रूप से पालन कर सकता है । दुर्बल, डरपोक, कायर , नपूंसक, अविवेकि, व्यक्ति हिंसकों की हिंसा को बढ़ाने में सहयोगी होते हैं। ।
उदाहरणार्थ :- डाकू (संगठन और मृत्यु से निर्भयता )------ इन दोनों शक्तियों को लेकर निकलते हैं ।
जो लोग मृत्यू के भय से अपना धन सम्पत्ति बिना मुकाबला किये हुए आसानी से दे देते हैं या ले जाने देते हैं।
वह लोग डाकूऔं को दूसरे स्थानों में डाका डालने व हिंसा करने व लूटने के उत्साह और हिम्मत को बढ़ाकर उनके इस प्रकार की हिंसा में समर्थन करके अप्रत्यक्ष रूप से स्वयंम् भी हिंसा ही करते हैं ।
लेकिन जो वीर पूरूष डाकूओं से अधिक साहसी , सामर्थ्यवान ,मृत्यू से अभय, आत्मबल से परीपूर्ण और सुसंगठन रूपी दिव्य शक्ति रखते हैं।
और संगठित होकर निर्भयता के उन डाकूऔं का मुकाबला करते हैं।
वे प्राणी अपने प्राणोंं को खोकर भी उन अत्याचारीयों के दूसरे स्थानोंं में आतंक फैलाने की आकांक्षा को खत्म कर देते हैं।
वह उनकि हिंसा को समूल नष्ट करके अहिंसा परमों धर्मः के भागी बनते हैं ।
यदि वह इस संग्राम में विजयी होते हैं तो अपने जीवन ,धन, सम्पत्ति, ऐश्वर्य को सम्मान पूर्वक भोगते हैं।
बलिदान होते है तो समाज व देश राष्ट्र के लिए एक अमर उदाहरण प्रस्तुत करते है।
To be continued.......
Pleas comment for your ............query's...........
Comments
Post a Comment