।। अहिंसा ।।
हिंसा एक तरह से आग की तरह है या यूं समझे कि एक ऊर्जा की तरह हैं।
जो हर मनुष्य या हर प्राकृतिक प्राणियों में पूरे संतुलित रुप से समाहित रहती है।
इस ऊर्जा को सही कहना या गलत कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि कोई ऊर्जा गलत या सही नहीं होती है।
अहिंसा का अर्थ यह नहीं है कि आपके हाथों मै बन्धन डाल दिया गया हैं ।
अगर आप हिंसा का उपयोग इस प्रकार करें कि वह किसी निर्दोष की रक्षा करने में , अपने अधिकारों की रक्षा करने में तथा अपने प्राणों की रक्षा करने में, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप जिस राष्ट्र में निवास करते हैं उस राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करना तो यह हिंसा भी अहिंसा बन जाती है ।
हिंसा सही या गलत नहीं होती इसे अविवेकता पूर्ण तरीके से करना हिंसा को गलत बनाता है।
एक कहानी से यह सब अच्छे से समझ में आ जाएगा कहानी इस प्रकार है कि एक गुरुकुल में शिष्य ने अपने गुरु से पूछा कि हे गुरुदेव हिंसा क्या होती है और वह किस प्रकार हमारे जीवन पर प्रभाव डालती है गुरु ने शिष्य से कहा जाओ जंगल से एक सूखी रुखी लकड़ी व एक पूरी तरह जल से भीगी हुई लकड़ी लेकर आओ वह शिष्य जंगल से सूखी व जलसे भीगी हुई दो लकड़ियां लेकर आया गुरु ने शिष्य से कहा इस सूखी हुई लकड़ी को एक चिंगारी से जलाओ उस शिष्य ने जब उस लकड़ी को चिंगारी दि तो वह लकड़ी जलने लगी और कुछ ही देर में वह पूरी तरह से जलकर राख हो गई अब गुरु ने शिष्य से कहा कि अब भीगी हुई लकड़ी को जलाओ शिष्य ने भीगी हुई लकडी को जलाने का प्रयास किया लेकिन वह लकड़ी नहीं जली उसने फिर प्रयास किया लेकिन फिर भी वह लकड़ी नहीं जली वह प्रयास करता रहा लेकिन उसके पास जो भी लकडी को जलाने के साधन थे वह समाप्त हो गए।
तब गुरु ने शिष्य से कहा की यह दोनों लकड़ियां इस प्रकार हैं जैसे कोई दो मनुष्य जिसमें एक सूखी लकड़ी की तरह पूरे जीवन रूख़ा रूख़ा रहता है, उसके अंदर की हिंसा रूपी आग को कोई भी उत्तेजित कर देता है या उत्तेजित हो जाती हैं तो वह अपने आप को ही नष्ट कर लेता है लेकिन जो मनुष्य भीगी हुई लकड़ी की तरह अपने जीवन को पूर्ण रुप से प्रेमरस से भीगा रहता है तथा अपने जीवन को पूरी विवेकता के साथ जीता है वह कभी भी किसी से उत्तेजित नहीं होता है तथा जो उसे उत्तेजित करते हैं वह भी उसके प्रेम में प्रेममय हो जाते हैं उनके अंदर की अविवेकी हिंसा भी प्रेम मैं परिवर्तित हो जाती हैं इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को निस्वार्थ तथा बिना किसी द्वेष के तथा बिना किसी अभिमान के सभी प्राकृतिक घटकों का महत्व समझते हुए अपने जीवन को प्रेममय रखते हुए अपने जीवन को जीना चाहिए।
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पुष्प कि तरह जीवन में सुगंन्ध सुन्दरता काँँटे कि तरह संन्तुलित मिश्रण होना ही सही अर्थों में जीवन है। |
हिंसा एक तरह से आग की तरह है या यूं समझे कि एक ऊर्जा की तरह हैं।
जो हर मनुष्य या हर प्राकृतिक प्राणियों में पूरे संतुलित रुप से समाहित रहती है।
इस ऊर्जा को सही कहना या गलत कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि कोई ऊर्जा गलत या सही नहीं होती है।
उर्जा एक परिवर्तन करने की क्षमता है ।
जब हम अहिंसा की बात करते हैं तो इसका अर्थ है कि हम हिंसा का उपयोग ऐसे परिवर्तन के लिए कर रहे हैं जो किसी प्राकृतिक घटक को हानि पहुंचाए बिना या प्राकृतिक घटकों को हानि पहुंचाने वाली ऊर्जा का प्रतिरोध करने में उपयोग करें यही सच्ची अहिंसा हैं ।अहिंसा का अर्थ यह नहीं है कि आपके हाथों मै बन्धन डाल दिया गया हैं ।
अगर आप हिंसा का उपयोग इस प्रकार करें कि वह किसी निर्दोष की रक्षा करने में , अपने अधिकारों की रक्षा करने में तथा अपने प्राणों की रक्षा करने में, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप जिस राष्ट्र में निवास करते हैं उस राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करना तो यह हिंसा भी अहिंसा बन जाती है ।
हिंसा सही या गलत नहीं होती इसे अविवेकता पूर्ण तरीके से करना हिंसा को गलत बनाता है।
एक कहानी से यह सब अच्छे से समझ में आ जाएगा कहानी इस प्रकार है कि एक गुरुकुल में शिष्य ने अपने गुरु से पूछा कि हे गुरुदेव हिंसा क्या होती है और वह किस प्रकार हमारे जीवन पर प्रभाव डालती है गुरु ने शिष्य से कहा जाओ जंगल से एक सूखी रुखी लकड़ी व एक पूरी तरह जल से भीगी हुई लकड़ी लेकर आओ वह शिष्य जंगल से सूखी व जलसे भीगी हुई दो लकड़ियां लेकर आया गुरु ने शिष्य से कहा इस सूखी हुई लकड़ी को एक चिंगारी से जलाओ उस शिष्य ने जब उस लकड़ी को चिंगारी दि तो वह लकड़ी जलने लगी और कुछ ही देर में वह पूरी तरह से जलकर राख हो गई अब गुरु ने शिष्य से कहा कि अब भीगी हुई लकड़ी को जलाओ शिष्य ने भीगी हुई लकडी को जलाने का प्रयास किया लेकिन वह लकड़ी नहीं जली उसने फिर प्रयास किया लेकिन फिर भी वह लकड़ी नहीं जली वह प्रयास करता रहा लेकिन उसके पास जो भी लकडी को जलाने के साधन थे वह समाप्त हो गए।
तब गुरु ने शिष्य से कहा की यह दोनों लकड़ियां इस प्रकार हैं जैसे कोई दो मनुष्य जिसमें एक सूखी लकड़ी की तरह पूरे जीवन रूख़ा रूख़ा रहता है, उसके अंदर की हिंसा रूपी आग को कोई भी उत्तेजित कर देता है या उत्तेजित हो जाती हैं तो वह अपने आप को ही नष्ट कर लेता है लेकिन जो मनुष्य भीगी हुई लकड़ी की तरह अपने जीवन को पूर्ण रुप से प्रेमरस से भीगा रहता है तथा अपने जीवन को पूरी विवेकता के साथ जीता है वह कभी भी किसी से उत्तेजित नहीं होता है तथा जो उसे उत्तेजित करते हैं वह भी उसके प्रेम में प्रेममय हो जाते हैं उनके अंदर की अविवेकी हिंसा भी प्रेम मैं परिवर्तित हो जाती हैं इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को निस्वार्थ तथा बिना किसी द्वेष के तथा बिना किसी अभिमान के सभी प्राकृतिक घटकों का महत्व समझते हुए अपने जीवन को प्रेममय रखते हुए अपने जीवन को जीना चाहिए।
यही सबसे महत्वपूर्ण धर्म है जैसा कि महावीर स्वामी ने कहा है अहिंसा परमो धर्मा
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