Yama-Niyama/यम-नियम

                   ।। यम- नियम ।।                    


Yama-Niyama/ यम -नियम योग ध्यान
यम-नियम

यम-नियम


यम-नियम के बारे में महर्षि पतंजलि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ योगसूत्र में उल्लेख किया है ।

योग के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आठ अंगों का सिद्धांत दिया ।
यह 8 अंग आठ आयाम की तरह हैं , योगी जन इन आठ आयाम के द्वारा अपने व्यवहार ,शरीर ,मन तथा आत्मा को नियंत्रित करके अनेक संभावनाओं के बारे में जानते हैं तथा अपने आप को ग्रहण शील बनाते हैं।
                   इस ग्रहण शीलता के द्वारा ज्ञान के अखंड स्त्रोत से जुड़ जाते हैं।

ज्ञान के अखंड स्त्रोत से मेरा मतलब है कि एक ऐसा स्त्रोत जो इस पूरे ब्रमांड को नियंत्रित करता है ,संचालित करता है तथा पोषित करता है उस सर्वश्रेष्ठ ज्ञान ज्योति से अनवरत ज्ञान का विस्तार हो रहा है।

 अतः योगीयों के द्वारा योग के माध्यम से उसी ज्ञान को ग्रहण करना तथा उस ज्ञान का संसार में प्रसार करना और संसार के अज्ञानता के अंधकार को दूर करना और ज्ञान के प्रकाश का विस्तार करना उनका लक्ष्य होता है।

योग के आठ अंग :- १ - यम ,२ - नियम ,३ - आसन ,४ - प्राणायाम् ,५ - प्रत्याहार ,६ - धारणा ,७ - ध्यान ,८ - समाधी 

योग के आठ अंगों में प्रथम 5 अंग :- (यम ,नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार) योग के बहीरंग साधन है या आयाम है ।
बहीरंग का अर्थ है शरीर के बाहरी पहलुओं को प्रभावित करने वाले योगिक अंग जैसे कि सामाजिक व्यवहारिक तथा शारीरिक जीवन को संतुलित व नियंत्रित करने वाले ।

किसी मनुष्य को पूर्ण रुप से स्वस्थ तभी माना जाता है जब वह शारीरिक मानसिक और सामाजिक रुप से स्वस्थ हो उसके जीवन में किसी प्रकार का रोग व्याधि या तनाव या किसी प्रकार का विवाद ना हो तभी वह स्वस्थता की श्रेणी में ख़रा उतरता है ।

अतः योग के प्रथम पांच अंग एक मनुष्य के जीवन को पूर्ण रुप से स्वस्थ व संतुलित करते हैं ।

योग के प्रथम दो अंग(यम -नियम)  सामाजिक व्यवहारिक तथा आर्थिक जीवन को संतुलित करने और पूरे नियंत्रण के साथ कार्य करने के लिए तैयार करते हैं इसलिए हर मनुष्य को योग के प्रथम दो अंगों को अपने जीवन में धारण करना चाहिए ।

यम ;- यम के अंदर सामाजिक जीवन को सुव्यवस्थित करने के लिए सामाजिक नैतिकता के स्तंभ बताए गए हैं।

ये स्तंभ हैं :-- १. अहिंसा , २. सत्य , ३. ब्रह्मचर्य , ४. अस्तेय ,५. अपरीग्रह 


Yama-Niyama Yoga meditation about of true nonviolence
यम-नियम


१.  अहिंसा :- जीवन में सुख समृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि हमारा जीवन किसी भी तरह से हिंसात्मक ना हो ।

क्योंकि हिंसा हमारे जीवन में टकराव पैदा करती है और टकराव हमारे जीवन को नष्ट कर देता है, इसलिए हमें अहिंसा का पालन करना चाहिए

 और इसके साथ-साथ हमें यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि अहिंसा का सही अर्थ क्या है।
 क्योंकि अहिंसा को लोग इस प्रकार देखते हैं कि हमारे द्वारा किसी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो दुख नहीं हो यह बात सही है। 

लेकिन अहिंसा का सही अर्थ यह है कि हमारे विचार शब्द या कर्म किसी भी प्रकार से किसी को कष्ट नहीं देना दुख नहीं देना है, यही अहिंसा है ।

अब आधुनिक जीवन में अहिंसा धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।
 और पुरे संसार में टकराव कि स्थितियां पैदा हो रही है , और यह टकराव पूरे संसार को समाप्ति के या यूं कहें कि विनाश की ओर ले जा रहा है ।

अतः संसार को इस टकराव से मुक्त करने का एकमात्र साधन यही है, कि यह मानव समाज अपने आप को अनेक वर्गो में विभाजित मानकर न रहे बल्कि पूरे मानव समाज को एक मानकर मानवता की परिभाषा को निर्मित करें तथा वसुदेव कुटुंबकम् की अवधारणा को सार्थक करें ।

हिंसा से बचने का एकमात्र उपाय यह हो सकता है कि हम सोचे कि ,

" जो मैं किसी और के साथ कर रहा हूं वही अगर मेरे साथ भी गठित हो तो मुझे कैसा महसूस होगा क्या मैं वह सब सही महसूस कर सकता हूं या वह मेरे लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है ।"

अगर यह सोच हो तो हम कुछ ह़द तक संवैदनशील होकर हिंसा से बच सकते हैं।

अहिंसा से जुड़े कुछ मिथक ;----

कोई यह सोच कर कि मैं अहिंसा वादी हूं तो उसके घर में चोर के द्वारा या डाकू के द्वारा पूछने पर डर के कारण अपने धन संपत्ति के बारे में उन्हें बता देना और अपने धन की रक्षा न करना तथा उन चोर व डाकुओं का किसी अन्य स्थान पर लूट मार करने मैं अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करना अहिंसा नहीं है।


बल्कि उन चोर व डाकूओं का मुकाबला करना और उनके उद्देश्य को सफल नहीं होने देना अहिंसा है।

 क्योंकि उनका प्रतिरोध करने से अनेक स्थानों पर उनके द्वारा होने वाली हिंसा व लूट को रोक सकते हैं ।

अहिंसा के महत्व के बारे में हिंदू धर्म ,  बौद्ध धर्म ,जैन धर्म तथा सिक्ख धर्म व संसार के अन्य धर्मों में बहुत महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है ।

अतः कोई भी धर्म अहिंसा धर्म से सर्वश्रेष्ठ नहीं हो सकता क्योंकि अहिंसा धर्म ही परम धर्म है , मानव धर्म है ,और प्राकृतिक धर्म है।

यह बात जैन धर्म के महावीर स्वामी ने कहा है :- अहिंसा परमो धर्म  ।

अर्थात अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म है ।
बुराई का विरोध करना हिंसा नहीं है लेकिन बुराई को खत्म करने के लिए बुराई का रास्ता चुनना हिंसा हो जाता है।

योगीयो के लिए अपने लक्ष्य को प्राप्त करना अहिंसा धर्म के पालन करने में ही सिद्ध होता है ।

अगर किसी योगी में अहिंसा नहीं हो तो वह योग का अधिकारी नहीं हो सकता है ।

इसलिए योगीयों को पूर्ण रुप से अहिंसा का पालन करना चाहिए और जहां हिंसा हो रही हो वहां से दूर रहना चाहिए।

और समाज में अहिंसा का प्रचार प्रसार करना चाहिए यही सबसे महत्वपूर्ण योग है यही संसार को जोड़ कर सकता है।

जो योगी अहिंसा का पालन नहीं करते वह योग के किसी भी चरण को प्राप्त नहीं कर सकते हैं उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है ।



२.  सत्य :- मनुष्य  जीवन के सामाजिक स्तर को तथा अपने संपूर्ण जीवन को सत्यता के साथ जीना चाहिए जिससे जीवन में किसी प्रकार की उलझने उत्पन्न नहीं होंगी और वह अपने जीवन को पूरी निर्मलता के साथ जिएगा ।

सत्यता विचारों में होती है और जीवन में जहां सत्यता का निवास रहता है वहां किसी प्रकार का तनाव नहीं रहता है उलझनें समाप्त हो जाती है ।

 पूरी तरह से सत्यता में रहने से उसका जीवन सत्यमय हो जाता है और उसके मुख से निकली हुई हर वाणी सत्य सिद्ध होती है ।

इसके उदाहरण प्राचीन काल में ऋषियों के द्वारा श्राप देना या वरदान देने से सिद्ध होते हैं।

अतः सत्य हमारे जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू के रुप में कार्य करता है ।

इसलिए कभी भी जीवन में असत्य का पालन नहीं करना चाहिए हमेशा सत्य का पालन करना चाहिए जिससे हमारे जीवन में हमेशा जो भी हो वह सत्य हो, उज्जवल हो ,स्पष्ट हो और पवित्र व निर्मल हो।

 सत्य का पालन करने का अर्थ यह नहीं है कि आपको अगर कोई डाकू या लुटेरा पूछे कि आपके घर में आपका धन संपत्ति कहां पर रखे हैं तो आप उन्हें सच-सच बता दें की हमारा धन यहां रखा है ।

इस तरह मुर्खतापूर्वक कहने से आप सत्य का पालन नहीं करते  बल्की उन चोर-लुटेरों का हौसला बढ़ाते हैं।

 जिससे अन्य स्थानों पर ऐसी ही घटनाओं को अंजाम देते हैं ।
इसके विपरीत आपको यह करना चाहिए की आप उन्हें सब कुछ गलत बताएं और उन्हें रोकने के लिए पूरा प्रयास करें तभी आपका सत्य का पालन सिद्ध होता है । 


मेरे कहने का अर्थ यह है,  कि आप जो भी करें पुरे विवेक और सोच समझ कर करें और सबसे महत्वपूर्ण बात  यह हैं , कि जो सत्य आपके जीवन आपकी धन संपत्ति या आपके राष्ट्र आपके मान-सम्मान के खिलाफ हो ऐसा सत्य कभी भी फलदाई नहीं होता है बल्कि यह अनिष्ट का कारण बनता है ।

३. अस्तेय :-  मनुष्य को चाहिए कि वह जो भी अपने जीवन में प्राप्त करना चाहता है ।

वह उचित कर्म के द्वारा प्राप्त करें ,उचित संघर्ष के द्वारा प्राप्त करें,  तभी वह सुखी रह सकता है तथा अपने जीवन को व अन्य परिवारों के जीवन को सुखमय करता है ।

जो मनुष्य चोरी करते हैं  उन्हें उनके जीवन में कभी भी आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती उनका पूरा जीवन तनाव ग्रस्त रहता है ।

वह कभी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते ।

जो लोग अपने कार्यस्थल पर कार्य  करने में आलस  दिखाते हैं या कार्य को ईमानदारी से नहीं करते हैं वह भी अप्रत्यक्ष रूप से चोरी ही कर रहे होते हैं।

जिस मनुष्य में आत्म सम्मान की भावना होती है वह किसी भी वस्तु को या सम्मान को तथा धन संपत्ति को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करने में विश्वास रखता है।

बिना संघर्ष के उसे अपना जीवन भी प्रिय नहीं होता है। 
ऐसे मनुष्य संसार में एक नया मुकाम हासिल करते हैं।

 पूरे संसार के लिए मिसाल कायम करते हैं जिससे आने वाला समाज सीख सके और अपने जीवन को कर्मशील बना सके इसलिए हर मनुष्य में सेल्फ रिस्पेक्ट होनी चाहिए।

 तभी संसार में महानतम कार्यों को सफल बना सकता है और अपने जीवन का सही उपयोग कर सकता है और यही उस का कर्तव्य है।

४.  ब्रह्मचर्य :-  ब्रह्मचर्य के दो अर्थ हैं ।


पहला ; यह है कि अपने चेतन तत्व को या यूं कहें चेतना को इस ब्रह्माण्ड का निर्माण व नियंत्रित करने वाली शक्ति से एकाकार करना या जोड़ना ।

ब्रह्माण्ड की शक्ति के बारे में मेरा मतलब है, कि जो शक्ति इस ब्रह्माण्ड को पूरी क्षमता संतुलन और सूव्यवस्थित तरीके से बिना विस्मित हुए अरबों वर्षों से संचालित कर रही है ।

अतः यह कोई प्रमाणित करने का विषय नहीं है यह तो  स्वयं प्रमाणित है ।

अतः ब्रह्माण्ड को चलाने वाली शक्ति से अपने चेतन तत्व को जोड़ने पर संपूर्ण ब्रह्माण्डीय शक्ति से हमारा परीचय हो जाता हैं ।

और हमारा अपनी बुद्धि का अभिमान खत्म हो जाता है ।

क्योंकि हम उस यूनिवर्सल इंटेलिजेंस से जुड़ जाते हैं और हमारा अस्तित्व यूनिवर्सल अस्तित्व को ग्रहण कर लेता है ।

जिससे हम संपूर्णता को प्राप्त हो जाते हैं और हमें कुछ और पाने की अभिलाषा भी नहीं रहती है, आकांक्षाएं खत्म होने के बाद हमारा जीवन सुखमय व आनंदित हो जाता है ।

इसलिए योग  हमारे जीवन को मूल अस्तित्व से जोड़ने का कार्य करता है ।

मेरा मानना है कि सभी मनुष्य को योग करना चाहिए योग को अपने जीवन से जोड़ना चाहिए।

 या यूं कहें कि योग आपसे स्वयं जुड़ना चाहता है केवल आप अपनी सीमाओं से बाहर आओ और देखो कि यह ब्रह्माण्ड कितना विशाल है कितना समग्र है इतना धनवान है और अपने जीवन को इस पूरे ब्रह्माण्ड में जीने का एहसास करें ।

दूसरा ; यह है की संसार में किसी भी चीज की उत्पत्ति पॉजिटिव और नेगेटिव एनर्जी के संयोग से होती है वह चाहे मनुष्य हो या वनस्पति पेड़ पोधे जीव-जंतु तथा ब्रह्माण्ड के अनेक तत्व ।

 अब हम मनुष्य की बात करते हैं तो यह दिखाई पड़ता है कि मनुष्य में दो प्रकार के वर्ग मौजूद है।

 पुरुष व स्त्री यह दोनों संसार में मानव जाति के विस्तार के लिए जिम्मेदार होते हैं।

स्त्री व पुरुष मिलकर एक नए मानव का निर्माण करते हैं । इस प्रक्रिया को सेक्स या संम्भोग के द्वारा किया जाता हैं ।

यह प्रक्रिया जब किसी पुरुष/स्त्री ने संतान को जन्म देने के लिए की जाए तो उत्तम होती है ।

लेकिन अपने शारीरिक सुख के लिए अपनी वासना व हवस को मिटाने के लिए इस कार्य को बार-बार करने से मनुष्य अपने जीवन में अपने मनुष्यत्व को खो देता है और राक्षस प्रवृती को प्राप्त करता है ।

और अन्य मनुष्य के लिए घातक सिद्ध होता है उसकी उपस्थिति मानव समाज के लिए एक कलंक की तरह होती है।

अतः पूरे विवेक के साथ और पूरे ज्ञान के साथ जो मनुष्य केवल संतान उत्पत्ति के लिए स्त्री गमन करता है, वह भी एक बार तो उसका ब्रह्मचर्य व्रत नष्ट नहीं होता है।

 और यह पूरी मानव समाज के लिए वरदान साबित होता है ।

एक योगी के लिए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना अति आवश्यक होता है।

 ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किए बिना कोई भी मनुष्य योग का अधिकार नहीं बन सकता है।

 और यह गृहस्थ आश्रम में भी रहने वाले मनुष्यों को संयम के साथ जीने का नया आयाम प्रदान करता है ।

योगी के लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ है कि मन कर्म और वचन या किसी भी अनुभूति से शारीरिक सुख की अभिलाषा नहीं करना ।

यह कार्य इतना कठिन होता है कि अनेक योगीयों को भी भ्रष्ट कर देता है ।

इसलिए ब्रहमचर्य का पालन करना सभी के लिए बहुत ही कठिन है , परंतु अगर ध्यान (ज्ञान) की पराकाष्ठा को प्राप्त करना है।

 और अपने मन को इन क्षीण सुखों से हटा कर उस परम सुख से जोड़ने का उद्देश्य प्राप्त करने कि तीव्र इच्छा शक्ति उत्पन्न हो गई तो अवश्य ही हमारा मन चंचलता से अंतर्मुखता की ओर गमन करेगा और धीरे-धीरे ब्रहमचर्य सफल हो सकता है।


और यह भी जानना आवश्यक है कि आपके जीवन का तभी महत्व है,  संसार में जन्म लेने का तभी महत्व है।

जब आप संसार को वह लौटायें जो आपने इस संसार से प्राप्त किया है।

अर्थात आपको यह अस्तित्व जिसे आप अपना शरीर मन बुद्धि कहते हो वह इस संसार से ही मिला है।

 और आपका कार्य इतना है कि अपने अस्तित्व को जानो और अपने आपको अनेक दुखों कष्टों तनाव आदि से मुक्त करो ,मोक्ष को प्राप्त होकर इस संसार सागर में समाहित हो जाओ।



५.  अपरीग्रह :-  अपनी आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना ।

दूसरों के धन वैभव को प्राप्त करने की अभिलाषा को त्याग देना ।
जो मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक कुछ भी संचय करता है और उसका उपयोग ना ही स्वयं करता है और न किसी दूसरे के लिए सहयोग देता है वह कभी भी सुखी नहीं रह सकता है ।

 अतः अपने जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करो उसे अपनी आवश्यकता के अनुरुप अपने पास रखें।

 अपनी आवश्यकता से अधिक हो तो उसे लोक कल्याण में लगाना चाहिए यही सच्चा अपरीग्रह व्रत सिद्ध होता है।

योग के अधिकारी होने के लिए योगी को अपने मन को किसी भी वस्तु में या धन-संपत्ति या किसी जीव-जंतु , स्थान या किसी व्यक्ति विशेष से नहीं जोड़ना चाहिए ।

क्योंकि जब योगी किसी से अपनी भावनाओं या अन्य प्रकार से अपने अस्तित्व को जोड़ता है तो वह योग का कभी भी अनुसरण नहीं कर सकता वह मोह माया में ही उलझ कर रह जाता है।


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To be continued....

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