What is the Yama-Niyama in Yoga | the eight limbs of yoga are yama niyama asana pranayama pratyahara dharana dhyana

-: यम-नियम :-

नियम :- 

"शौचसंतोसतपःस्वाध्यायायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।।"

Yama-Niyama yoga
Yama-Niyama yoga

अर्थात् शौच, संतोष (सब्र, संतुष्टि,धैर्य), तप , , स्वाध्याय, और ईश्वरप्रणिधान पाँच नियम हैंं।

1. शौच :- शौच का अर्थ है शुद्धता ।

      दो प्रकार हैं ---बाह्य शुद्धि तथा आभ्यांतर (आंतरिक)शुद्धि ।

बाह्य शुद्धि --- हमारे जीवन की आवश्यक वस्तुऔं जैसे -भोजन, वस्त्र, स्थान, जल, तथा अन्य वस्तुऐं सभी को स्वस्थ रखना, अपने शरीर के अंगों को शुद्ध रखना, तथा शुद्ध सात्त्विक नियमित आहार से शरीर को सात्त्विक, निरोग और स्वस्थ रखना चाहिए।

योग के साधन जैसे- वस्ती, धौती, नेती,स्नान के द्वारा तथा औषधि के द्वारा शरीर का शोधन करना चाहिए ---यह बाह्य शौच के रूप है ।

आभ्यान्तर शुद्धि --- अपने मन के विकार जैसे -- ईर्ष्या, अभिमान, घृणा, लालच आदि को शुद्ध विचारों के द्वारा हटाना, दुर्व्यवहार को शुद्ध व्यवहार से हटाना मानसिक शौच या आंतरीक शुद्धि हैं ।

अज्ञान के द्वारा उत्पन्न होने वाले विकारों को विवेक-ज्ञान के द्वारा दूर करना चित्त कि शुद्धता हैं ।

2. संतोष :- अपनी क्षमता के अनुसार कर्म करने से जो फल प्राप्त हो तथा जिस अवस्था मेंं हम हैं।

 उस अवस्था में संतुष्ट व प्रसन्नचित रहना तथा सभी प्रकार की तृष्णाओं अर्थात लालच का त्याग करना संतोष हैं।

संतोष में ही शांति व सुख होता है, असंतोष में दुख का मूल है, इसलिए अपने मन में संतोष व सब्र की भावना होना आवश्यक हैं ।

3. तप :- जिस प्रकार अश्व विद्या का कुशल सारथी चंचल घोड़ों को साधता है।

 उसी प्रकार शरीर प्राण इंद्रियों और मन को उचित रीति से तथा अभ्यास के द्वारा नियंत्रित करने को तप कहते हैं।

जैसे सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, सुख-दुख,  हर्ष शोक , मान-अपमान, आदि सर्व द्वंद अवस्था में बिना विक्षेप के अर्थात बिना अस्थिर हुए अपने कार्यों में या योग मार्ग में प्रवृत्त रहना तप हैं।

जिस तप से शरीर में पीड़ा व्याधि तथा इंद्रियों में विकार आए चित्त में अप्रसन्नता रहे ऐसा तामसी प्रवृत्ति का तप योग मार्ग में वर्जित हैं।

4. स्वध्याय :- वेद उपनिषद आदि और अध्यात्म संबंधी विवेक ज्ञान उत्पन्न करने वाले योग और साहित्य के सत शास्त्रों का नियमपूर्वक अध्ययन और ओंकार सहित गायत्री आदि मंत्रों का जप स्वाध्याय हैं ।

5. ईश्वर प्रणिधान :- ईश्वर की भक्ती विशेष अर्थात फल सहित सर्व कर्मों को ईश्वर के चरणों में समर्पित करना ईश्वर प्रणिधान हैं।

ईश्वर प्रणिधान का फल श्री वेदव्यास जी ने अपने भाष्य में इस प्रकार बतलाया है।

जो योगी शय्या तथा आसन पर बैठा हुआ या मार्ग में चलता हुआ या एकांत में स्थित हुआ हिंसा आदि वितर्क रूप जाल को नष्ट किए हुए ईश्वर प्रणिधान का सेवन करता है।

 वह संसार के बीज अविद्या अर्थात अज्ञान आदि क्लेशों के क्षय का अनुभव करता हुआ नित्य परमात्मा में अर्थात आनंद में युक्त हुआ अमृत के समान सुख का भागी होता है अर्थात जीवनमुक्त के सुख को प्राप्त होता है। 


सब नियमों में ईश्वर प्रणिधान मुख्य है तथा सब नियमों को ईश्वर समर्पण रूप से करना श्रेष्ठ हैं।

ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य , अस्तेय और अपरिग्रह सेवन करें। जितेंद्रिय शुद्ध मन योगी स्वाध्याय शौच संतोष तप इनका परब्रम्ह में अर्पण करें।

हठयोग ने शरीर शोधन के 6 साधन बतलाए गए हैं ।
धौति, वस्ति, नेति, नौली, त्राटक और कपालभाती इन 6 कर्मों को शरीर शोधन के निमित्त करना चाहिए।

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