KUNDALINI YOGA
-: कुण्डलीनी योग :-
चित्त या चेतना शक्ति को जानने के बाद प्राण शक्ति का वर्णन करते हैं ।
कुण्डलीनी योग |
२. प्राण शक्ति :- 'प्राण' --चित्त के ज्ञान के समान ही प्राण का ज्ञान भी योग के मार्ग पर चलनें वाले साधकों के लिए बहुत आवश्यक हैं।
प्राण श्वास नहीं है जैसा कि अत्यधिक व्यक्ति समझते हैं और न ही आत्मतत्त्व है जैसा कि पाश्चात्त्य विद्वान् मानते हैं, किन्तु प्राण वह जड़तत्त्व या शक्ति है या ऊर्जा जिसके द्वारा श्वास-प्रश्वास तथा शरीर की अन्य गतियों आदि समस्त क्रियाओं को एक जीवित शरीर में निर्धारित किया जाता हैं।
सृष्टि के आरम्भ में पाँचों स्थूलभूत(पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश) ,लोक-लौकान्तरों और सजीव तथा निर्जीव पदार्थ अपने उपादान (substance) कारण आकाश से प्राणशक्ति द्वारा उत्पन्न होते हैं।
इसी प्रकार प्राणशक्ति से सहारा पाकर जीवित रहते हैं।
और महाविनाश अर्थात् प्रलय के समय इसी प्राण शक्ति का आश्रय न पाकर कार्यरुप से अर्थात् स्थूल रूप से नष्ट होकर अपने कारण रुप आकाश में मिल जाते हैं।
पँचभूत भी आकाश से ही उत्पन्न होते है और आकाश में ही नष्ट होकर लीन हो जाते हैं।
ये सभी पँचभूत प्राणशक्ति से ही आकाश में उत्पन्न होते हैं और प्राणशक्ति के अभाव में पुनः आकाश में लीन हो जाते हैं।
" स मैथुनमुत्पादयते -- रयिं च प्राणं च । " अर्थात्
हिरण्यगर्भ ने एक जोड़ा उत्पन्न किया -- " रयि और प्राण । "
Universe Consciousness |
अर्थात इनमें गति होती हैं, स्थिरता रहती हैं, या अन्य सब क्रियाएं होती हैं; वह सब प्राण हैं ।
अथवा यूं समझे की संपूर्ण ब्रह्मांड एक बड़ा वाष्प यंत्र है, और प्राण उसमें वाष्प है, जिससे इस मशीन के सारे पुर्जे चल रहे हैं, सभी क्रियाएं संपन्न हो रही हैं ।
और हिरण्यगर्भ इंजीनियर के सदृश हैं, जो नियम और व्यवस्था के साथ पूरे नियंत्रण तथा विवेकता पूर्वक प्राण रूपी शक्ति से इस ब्रह्माण्ड रूपी मशीन को संचालित कर रहा है।
प्राण इस ब्रह्माण्ड की जीवन शक्ति है, जिससे इस ब्रह्माण्ड में जीवन संचालित होता हैं ,और 'रयि' सभी मुर्त व अमुर्त पदार्थ है ,जैसे - जल, थल, वायु ,अग्नि, मीट्टी, पत्थर ,धातुऐं आदि ।
जब रयि(निर्जीव तत्व) में प्राण शक्ति(जीवन शक्ति) का प्रवाह होता है ,तभी जीवन आरम्भ होता है।
प्राण शक्ति धन-विद्युत तथा रयि ऋण-विद्युत हैं।
अतः यह प्राण समष्टि रुपसे(Monetary form ) सारे ब्रह्माण्ड को चला रहा है।
और व्यष्टि रूप (Individual form) से न केवल मनुष्य के पिण्ड-शरीर को ही किन्तु सारे जड़ पदार्थ --वृक्ष, लता, पौधे आदि तथा चेतन तत्त्व -- जीव-जन्तु, कीट, पतन्ग ,जलचर, थलचर, नभचर, तथा उभयचर आदि सभी शरीर धारी इसी (प्राण शक्ति)से जीवन पा रहे हैं।
इसलिये यह सब 'प्राणी' या 'प्राणधारी' कहलाते हैं।
सभी इन्द्रियों के कार्य प्राणशक्ति से ही चल रहा है ,इसलिये उपनिषदों में कहीं-कहीं प्राण शब्द इन्द्रियों के लिए प्रयुक्त हुआ है।
मनुष्य-शरीर में वृत्ति (Instinct) के कार्य-भेद से इस प्राण शक्ति को दश भिन्न-भिन्न नामों कि संज्ञा दि गयी है।
"प्राणोअ्पानः समानश्चोदानव्यानो च वायवः ।
"नागः कूर्मोअ्थ कृकरो देवदत्तो धनंजयः ।।
अर्थात् प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय ---ये दस प्रकार के वायु अर्थात प्राणवायु है।
1. प्राण वायु :- श्वास को अन्दर लेने व बाहर निकालने ,मुख और नासिका द्वारा गति करना, भोजन को ग्रहण करने व पचाने का तथा अलग करना, अन्न से पौरुष, पानी को पसीना व मुत्र तथा रसों से रक्त व वीर्य बनाना आदि सभी कार्य प्राणवायु के द्वारा किया जाता है।
प्राणवायु का स्थान हृदय से लेकर नासिका पर्यन्त शरीर के ऊपरी भाग में स्थित हैं।
ऊपरी इन्द्रियों का कार्य प्राणवायु के आश्रित है ।
2. अपान वायु :- इस वायु का कार्य गुदा से मल, उपस्थ से मुत्र और अण्डकोश से वीर्य को निकालना तथा गर्भ आदि को नीचे ले जाना, कमर, घुटने और जाँग का काम करना है ।
अपान वायु का स्थान नीचे की ओर गति करता हुआ नाभि से लेकर पैरों के तलवों तक स्थित होता है, निचली इंद्रियों का काम करना किसी के अधीन है।
3. समान वायु :- समान वायु शरीर के मध्य भाग में स्थित होता है।
इसका मुख्य स्थान नाभि से हृदय के मध्य हैं यह पचे हुए रस आदि को अर्थात भोजन को सभी अंगों व नाड़ियों में बराबर बराबर भागों में बांटता है ।
4. व्यान वायु :- इसका मूल स्थान जनन इंद्री से ऊपर हैं सारी स्थूल और सूक्ष्म नाड़ियों में गति करता हुआ शरीर के सब अंगों में रुधिर का संचार करता है।
5. उदान वायु :- इस वायु का स्थान कंठ से होता हुआ सिर पर्यंत गति करने वाला है।
शरीर को सीधे उठाए रखना इसका प्रमुख कार्य हैं। इसके द्वारा शरीर को व्यष्टि प्राण का समष्टि प्राण से संबंध कराया जाता है ।
उदान वायु द्वारा ही मृत्यु के समय सूक्ष्म शरीर का स्थूल शरीर से बाहर निकलना व सूक्ष्म शरीर के कर्म, गुण, वासनाओं और संस्कारों के अनुसार गर्भधारण करना या गर्भ में प्रवेश करना होता है ।
"योगी जन इसी के द्वारा स्कूल शरीर से निकलकर लोक लोकांतर में गमन करते हैं विचरण करते हैं।
6. नाग वायु :- (छिंकना ,खाँसना आदि)
7. कूर्मवायु :- (संकोचनीय)
8. कृकर वायु :- क्षुधा, प्यास, तृष्णा का कार्य
9. देवदत्त वायु :- निंद्रा-तंद्रा(आलस्य या थकान)
10. धनंञ्जय वायु :- शरीर को पोषणादि का कार्य ।
Budha meditatiion |
प्राणों को अपने अधिकार में चलाने वाले मनुष्य अर्थात योगीमनुष्य का अधिकार(हक) उसके शरीर, मन, इन्द्रियों पर भी हो जाता है।
प्राणो को अधिकार में करना या वश में करना ही प्राणायाम(Pranayam) कहलाता है।
प्राणायाम का शाब्दिक अर्थ:- प्राण -एक शक्ति और आयाम- नियंत्रण ।
इसमें मुख्यतः पुरक( श्वांस लेना), रेचन(श्वांस बाहर निकालना ), कुंभक ( यथाशक्ति श्वांस को रोकना ) होता है ।
प्राणों की सिद्धि मन को एकाग्र करती हैं और ध्यान को स्थिर करती हैं ।
" हर मनुष्य को इस जीवन की महत्ता को समझते हुए प्राणायाम और योग करना चाहिए और अपने जीवन को आनन्दमय करना चाहिए।"
Next post as soon......
Thanks for reading.....
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